राजनेताओें से कुर्सी छूटती नहीं। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक बार कहा था- मैं तो इस कुर्सी को छोड़ना चाहता हूँ लेकिन ये कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती। हो सकता है उस वक्त गहलोत ही सही हों, लेकिन वक्त किसी को भी पीछे छोड़ने से नहीं डरता। कुछ ही दिन बाद चुनाव हुए और गहलोत को भी कुर्सी छोड़नी पड़ी और कुर्सी तो कभी किसी की होती ही नहीं! ये बात वक्त ने अच्छी तरह से बता दी। सही है झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जेल में डालना वक्त का ग़लत निर्णय हो, लेकिन जेल से निकलते ही उनका फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने का निर्णय कितना सही है, ये भी वक्त ज़रूर बताएगा। भला हो चंपई सोरेन का जो बिहार के जीतनराम माँझी की तरह कुर्सी से नहीं चिपके, वर्ना लेने के देने पड़ सकते थे। कुल मिलाकर राजनीतिक तक़ाज़ा कहता है कि हेमंत सोरेन सत्ता से दूर रहते तो अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें और उनकी पार्टी को इसका ज़्यादा फ़ायदा मिलता। क्योंकि राज्य में चुनाव के लिए मात्र चार-साढ़े चार महीने ही बचे हैं। ऐसे में हेमंत थोड़ा सा धैर्य दिखाते तो उनकी जीत अगले चुनाव में सौ प्रतिशत पक्की हो सकती थी। हो सकता है वे अब भी जीत जाएं लेकिन अगले चार- साढ़े चार महीनों तक उनके राज के दौरान एंटी इन्कंबेन्सी कितनी बढ़ेगी यह अभी से कहा नहीं जा सकता। इतना ज़रूर है कि जेल जाने के कारण उनके प्रति जो सहानुभूति उपजी थी, उसमें कमी आना लाज़मी है। चंपई सोरेन हालाँकि कुछ भी कहते रहें, लेकिन निश्चित तौर पर वे इस फ़ैसले से दुखी ज़रूर होंगे। क्योंकि जब उनसे खुद के इस्तीफ़े या सत्ता परिवर्तन का कारण पूछा गया तो उन्होंने तपाक से यह नहीं कहा कि हेमंत सोरेन या शिबू सोरेन के प्रति अपार श्रद्धा के कारण उन्होंने ऐसा किया है, जैसा कि अक्सर नेता लोग कहते रहते हैं। उन्होंने केवल यह टका सा जवाब दिया कि यह गठबंधन का निर्णय है। सही मायने में कहा जाए तो निजी कारण से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक परिपक्वता के तक़ाज़े के कारण भी चंपई सोरेन इस फ़ैसले से क़तई खुश नहीं हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि विधानसभा चुनाव सिर पर हों तब इस तरह के राजनीतिक फ़ैसले किसी हाल में सही नहीं कहे जा सकते।